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अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस: बाघों की दहाड़

 पलामू: हर साल 29 जुलाई को विश्व बाघ दिवस (International Tiger Day) मनाया जाता है, जो बाघों के संरक्षण और उनके प्राकृतिक आवास की रक्षा के लिए वैश्विक जागरूकता बढ़ाने का अवसर प्रदान करता है. इस दिन बाघों की संख्या, उनके संरक्षण के प्रयासों और चुनौतियों पर चर्चा होती है. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि झारखंड का पलामू टाइगर रिजर्व वह ऐतिहासिक स्थल है, जहां 1932 में विश्व में पहली बार बाघों की गणना की गई थी.
2023 में ग्लोबल टाइगर फोरम और अन्य स्रोतों के आधार पर विश्व में जंगली बाघों की संख्या लगभग 5,574 है. यह संख्या 2016 में 3,890 और 2010 में 3,159 की तुलना में काफी अधिक है, जो दर्शाता है कि संरक्षण प्रयासों से बाघों की संख्या में सुधार हुआ है. बात करें बाघों की गिनती की चो अंग्रेजी शासनकाल में डीएफओ जेडब्लू निकोलसन ने पगमार्क (पदचिह्न) तकनीक का आविष्कार कर बाघों की गिनती शुरू की थी, जो आज भी बाघों की निगरानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. विश्व बाघ दिवस 2025 के अवसर पर पलामू टाइगर रिजर्व की ऐतिहासिक और समकालीन भूमिका को समझना जरूरी है, जो भारत के बाघ संरक्षण प्रयासों में एक महत्वपूर्ण अध्याय है.

हैबिटेट में बदलाव और जन भागीदारी से बढ़ रही है बाघों की संख्या

पलामू टाइगर रिजर्व इलाके में बाघों की संख्या बढ़ रही है. 2018 में बाघों की संख्या शुन्य रिकॉर्ड किया गया था. वहीं 2024 में आधा दर्जन के करीब बाघों के मूवमेंट रिकॉर्ड किए गए. बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए कई बिंदुओं पर कार्य किया जा रहा है.
पलामू टाइगर रिजर्व के उपनिदेशक प्रजेशकांत जेना बताते हैं कि बाघों की संख्या बढ़ाने को लेकर कई कदम उठाए गए हैं. हैबिटेट में बदलाव किया गया है. वहीं जन भागीदारी को भी बढ़ाया गया है. पलामू टाइगर रिजर्व में 190 हेक्टेयर में ग्रास लैंड था, जो फिलहाल 400 हेक्टेयर के करीब पहुंच चुका है. बाघों के संरक्षण को लेकर स्थानीय ग्रामीणों का सहयोग लिया जा रहा है और जन भागीदारी को बढ़ाया जा रहा है.
एंटी पोचिंग कैंप को भी एक्टिवेट किया गया है और इसमें अतिरिक्त कर्मियों की तैनाती की गई है. ट्रांजिट ट्रीटमेंट सेंटर की भी स्थापना की गई है ताकि वन्य जीवों का इलाज हो सके. स्थानीय ग्रामीणों को कई बिंदुओं पर जागरूक किया गया है और उन्हें रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं.

पलामू: बाघ गणना का ऐतिहासिक केंद्र

पलामू टाइगर रिजर्व, जो झारखंड के लातेहार और गढ़वा जिलों में फैला हुआ है, बाघ संरक्षण के इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है. 1932 में, अंग्रेजी शासनकाल के दौरान, डीएफओ जेडब्लू निकोलसन ने पहली बार बाघों की गणना के लिए पगमार्क तकनीक का उपयोग किया. इस तकनीक में बाघों के पदचिह्नों का विश्लेषण कर उनकी पहचान और संख्या का आकलन किया जाता था. यह तकनीक न केवल उस समय क्रांतिकारी थी, बल्कि आज भी बाघों की निगरानी के लिए इसका उपयोग होता है. पलामू टाइगर रिजर्व ने न केवल बाघ गणना की शुरुआत की, बल्कि यह क्षेत्र सतपुड़ा-साहिबगंज कॉरिडोर का हिस्सा है, जिसे ‘टाइगर कंट्री’ के नाम से जाना जाता है. इस कॉरिडोर में भारत के सबसे अधिक बाघ पाए जाते हैं, जो इसे वैश्विक बाघ संरक्षण का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाता है.

पगमार्क से डीएनए तक: बाघ गणना का बदलता स्वरूप

पगमार्क तकनीक की शुरुआत: 1932 में शुरू हुई पगमार्क तकनीक ने बाघों की गणना को व्यवस्थित और वैज्ञानिक बनाया. इस तकनीक में बाघों के पदचिह्नों को रिकॉर्ड कर उनकी पहचान की जाती थी. प्रत्येक बाघ के पंजे के निशान अद्वितीय होते हैं, जो उनकी उम्र, लिंग और क्षेत्र की जानकारी प्रदान करते हैं. पलामू में शुरू हुई यह तकनीक बाद में देश और दुनिया के अन्य हिस्सों में अपनाई गई.

आधुनिक गणना तकनीक

आज बाघों की गणना के लिए वैज्ञानिक और तकनीकी रूप से उन्नत तरीकों का उपयोग होता है. कैमरा ट्रैपिंग, डीएनए सैंपल विश्लेषण, स्कैट (मल) की जांच, और फोटो-वीडियो आधारित आकलन ने गणना को और सटीक बनाया है. पलामू टाइगर रिजर्व में कैमरा ट्रैप्स और अन्य उपकरणों का उपयोग कर बाघों की मॉनिटरिंग की जाती है. बाघों से संबंधित डेटा को देहरादून के वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) भेजा जाता है, जहां इसका विश्लेषण कर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) को रिपोर्ट दी जाती है. हालांकि, पगमार्क तकनीक अभी भी निगरानी और प्रारंभिक पहचान के लिए महत्वपूर्ण है.

सतपुड़ा-साहिबगंज कॉरिडोर: टाइगर कंट्री

पलामू टाइगर रिजर्व सतपुड़ा-साहिबगंज कॉरिडोर का हिस्सा है, जिसे सेंट्रल इंडिया लैंडस्केप और ईस्टर्न घाट के नाम से भी जाना जाता है. इस कॉरिडोर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के क्षेत्र शामिल हैं. इस क्षेत्र में 25 टाइगर रिजर्व हैं और अनुमान के अनुसार 1,161 से अधिक बाघ मौजूद हैं, जो इसे भारत का सबसे बड़ा बाघ आवास बनाता है.

कॉरिडोर की विशेषताएं

सतपुड़ा-साहिबगंज कॉरिडोर की भौगोलिक संरचना बाघों के लिए आदर्श है. यह क्षेत्र चारों ओर से पठारों से घिरा हुआ है, जिसमें समतल मैदान और घने जंगल शामिल हैं. बाघों के लिए आवश्यक संसाधन जैसे पानी, शिकार (हिरण, सांभर, जंगली सुअर), और सुरक्षित आवास इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं. यही कारण है कि इस कॉरिडोर को ‘टाइगर कंट्री’ कहा जाता है.

पलामू टाइगर रिजर्व: अतीत से वर्तमान तक

पलामू टाइगर रिजर्व की स्थापना 1974 में प्रोजेक्ट टाइगर के तहत की गई थी. उस समय इस क्षेत्र में 50 से अधिक बाघ होने की बात सामने आई थी. 1986 में बाघों की संख्या 60 तक पहुंची थी. हालांकि, समय के साथ बाघों की संख्या में उतार-चढ़ाव देखा गया. 2000 में 38, 2005 में 40 बाघ रिकॉर्ड किए गए. 2018 में NTCA ने पलामू टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या शून्य बताई थी, जो संरक्षण के लिए एक चिंताजनक स्थिति थी. लेकिन 2023 की NTCA रिपोर्ट ने राहत दी, जिसमें तीन बाघों की मौजूदगी दर्ज की गई. पिछले दो वर्षों में छह बाघों के मूवमेंट को रिकॉर्ड किया गया है, जो संरक्षण प्रयासों की सफलता को दर्शाता है.

अंग्रेजी शासनकाल में बाघों का शिकार

शिकार पर इनाम: अंग्रेजी शासनकाल में बाघों का शिकार एक सामान्य प्रथा थी. पलामू, गया, छत्तीसगढ़ के बलरामपुर और संथाल परगना जैसे क्षेत्रों में बाघों के शिकार के लिए 25 रुपये का इनाम दिया जाता था. अंग्रेज गवर्नर सैंडर्स की रिपोर्ट के अनुसार, 1893 में 384 रुपये, 1894 में 1,023 रुपये, 1895 में 1,321 रुपये, 1896 में 1,972 रुपये और 1897 में 1,111 रुपये इनाम के रूप में बांटे गए. 1905 के बाद अंग्रेजों ने शिकार को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाए और शिकार का अधिकार केवल राजाओं और जमींदारों को दिया गया. इस दौरान उत्तरी छोटानागपुर क्षेत्र में सबसे अधिक बाघों का शिकार हुआ, जिसने उनकी आबादी को भारी नुकसान पहुंचाया.

बिहार और झारखंड में बाघों की स्थिति

1993 के वन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, अविभाजित बिहार में 134 बाघ थे, जिसमें झारखंड के क्षेत्र भी शामिल थे. 1997 तक यह संख्या घटकर 103 रह गई थी. 1993 में बाघ 12 क्षेत्रों में मौजूद थे, लेकिन 1997 तक केवल तीन क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति दर्ज की गई. वन विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार, 1993 में बाघों की संख्या इस प्रकार थी.

वैश्विक परिदृश्य में बाघों की स्थिति

विश्व वन्यजीव कोष (WWF) के अनुसार, पिछले 100 वर्षों में जंगली बाघों की आबादी में 97% की कमी आई है. एक सदी पहले लगभग 1,00,000 बाघ थे, जो अब घटकर 3,900-5,574 रह गए हैं. भारत में 2022 की गणना के अनुसार 3,682 बाघ हैं जो वैश्विक बाघ आबादी का 70-75% है. बाघ अब केवल 13 देशों (भारत, बांग्लादेश, भूटान, कंबोडिया, चीन, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, नेपाल, रूस, थाईलैंड, और वियतनाम) में पाए जाते हैं. मलायन और सुमात्रन बाघ उप-प्रजातियां गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं. बाघों को बचाने के लिए CITES यानी Convention on International Trade in Endangered Species of Wild Fauna and Flora ( लुप्तप्राय जंगली जीव-जंतु और वनस्पति प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर संधि) काम कर रही है. यह एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि लुप्तप्राय प्रजातियों (जैसे बाघ) का अंतरराष्ट्रीय व्यापार उनकी उत्तरजीविता को खतरे में न डाले.

विश्व बाघ दिवस का इतिहास और महत्व

विश्व बाघ दिवस की शुरुआत 2010 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग टाइगर समिट में हुई थी, जहां 13 बाघ वाले देशों ने 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने (TX2 लक्ष्य) का संकल्प लिया. इस समिट में बाघों की घटती आबादी पर चिंता जताई गई, क्योंकि 20वीं सदी की शुरुआत में 1,00,000 बाघों की तुलना में 2010 तक केवल 3,200 बाघ बचे थे. विश्व बाघ दिवस का उद्देश्य बाघों के संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ाना और उनके आवास की रक्षा के लिए सामूहिक कार्रवाई को प्रोत्साहित करना है.

भारत में बाघ संरक्षण के प्रयास

भारत ने प्रोजेक्ट टाइगर (1973 में शुरू) के तहत 58 टाइगर रिजर्व स्थापित किए हैं, जो 82,836 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं. मध्य प्रदेश में सबसे अधिक बाघ (785) हैं, इसके बाद कर्नाटक (563), उत्तराखंड (560), और महाराष्ट्र (444) हैं. भारत ने बाघ संरक्षण में उल्लेखनीय प्रगति की है. 1973 में शुरू हुए प्रोजेक्ट टाइगर ने बाघों की संख्या बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. भारत में 58 बाघ अभयारण्य हैं, जिनमें मध्य प्रदेश का बांधवगढ़, कर्नाटक का बांदीपुर, और असम का मानस टाइगर रिजर्व शामिल हैं. पलामू टाइगर रिजर्व भी इस सूची में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है.

पलामू टाइगर रिजर्व: वर्तमान स्थिति और चुनौतियां

पलामू टाइगर रिजर्व, जो 1,129.93 वर्ग किमी में फैला है, कभी बाघों का गढ़ था. लेकिन नक्सलवाद, खनन गतिविधियां, और मानव अतिक्रमण ने इस क्षेत्र में बाघों की संख्या को प्रभावित किया है. 2018 में NTCA की शून्य बाघों की रिपोर्ट ने चिंता बढ़ाई थी, लेकिन 2023 में तीन बाघों की मौजूदगी और हाल के वर्षों में छह बाघों के मूवमेंट ने उम्मीद जगाई है.

बाघों की पारिस्थितिक भूमिका

बाघ शीर्ष शिकारी (Apex Predator) और छतरी प्रजाति (Umbrella Species) के रूप में पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखते हैं. वे शाकाहारी जानवरों (जैसे हिरण, सांभर) की आबादी को नियंत्रित करते हैं, जिससे वनस्पति और अन्य प्रजातियों का संरक्षण होता है. बाघों की मौजूदगी स्वस्थ जंगल का संकेत है, जो जलवायु नियंत्रण, जल संरक्षण, और जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण है. पलामू टाइगर रिजर्व जैसे क्षेत्र न केवल बाघों, बल्कि तेंदुए, भालू, और सैकड़ों पक्षी प्रजातियों का भी संरक्षण करते हैं.

बाघों की उप-प्रजातियां और विलुप्ति

वर्तमान में बाघों की छह उप-प्रजातियां जीवित हैं: बंगाल टाइगर, इंडोचाइनीज टाइगर, मलायन टाइगर, साइबेरियन टाइगर, साउथ चाइना टाइगर, और सुमात्रन टाइगर. बाली टाइगर, कैस्पियन टाइगर, और जावन टाइगर 20वीं सदी में विलुप्त हो चुके हैं. भारत में मुख्य रूप से बंगाल टाइगर (Panthera tigris tigris) पाए जाते हैं, जो पलामू टाइगर रिजर्व जैसे क्षेत्रों में निवास करते हैं.
विश्व बाघ दिवस 2025 पलामू टाइगर रिजर्व के लिए एक विशेष अवसर है, जहां बाघ गणना का इतिहास शुरू हुआ था. 1932 में पगमार्क तकनीक से शुरू हुई यह यात्रा आज कैमरा ट्रैप्स और डीएनए विश्लेषण तक पहुंच चुकी है. सतपुड़ा-साहिबगंज कॉरिडोर में सबसे अधिक बाघों की मौजूदगी इस क्षेत्र की पारिस्थितिक समृद्धि को दर्शाती है. हालांकि, नक्सलवाद, मानव-बाघ संघर्ष, और आवास हानि जैसी चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं. भारत ने प्रोजेक्ट टाइगर और NTCA के माध्यम से बाघों की संख्या बढ़ाने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है, और पलामू टाइगर रिजर्व इस प्रयास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. विश्व बाघ दिवस हमें यह याद दिलाता है कि बाघों का संरक्षण केवल उनकी रक्षा नहीं, बल्कि हमारे जंगलों, जैव विविधता और पर्यावरण की रक्षा है.

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